Sunday 28 April 2024

रंगोली (Rangoli)

 

दीपावली पर पूरे मन से बनाई रंगोली को एकत्रित करते हुए
एक खयाल आया यूँ ही मन में
कितना सुंदर है कोई परिकल्पना करना
फिर उसे साकार करने के लिए
उसका बड़े उत्साह और उमंग से सृजन करना
उसे बड़े प्यार से मंत्र-मुग्ध होकर निहारना,
और उसके मोह में डूब जाना
फिर कुछ दिनों बाद उसे उड़ते-बिखरते देख
खुद अपने ही हाथों से उसे समेट लेना
जैसे विधाता और प्रकृति का खेल
हमें इस धरा पर जन्म देना
इस सृष्टि में रचाना-बसाना 
और फिर धरा का संतुलन बनाए रखने के लिए
पुनः अपने में ही समेट लेना
- भावना नेवासकर



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Saturday 11 January 2020

संक्रांति (मराठी) (नई दुनिया नायिका (11 /01 /2020 ) में प्रकाशित इस लेख का विस्तृत रूप )


"तिळ गुळ घ्या अन गोडगोड बोला"

ये मकर संक्रांति पर तिल और गुड से बने लड्डु या वडी(चक्की) देते हुए मराठी भाषी परिवारों में बोली जाने वाली एक प्रचलित कहावत है जिसका अर्थ है तिल-गुड खाओ और मीठा-मीठा बोलो|

मकर संक्रांति वैसे अलग अलग नामो से भारत के हर प्रदेश, हर क्षैत्र में भौगोलिक और प्राकृतिक दो मुख्य कारणों से मनाई जाती है | पहला ऐसा माना जाता है कि इसी दिन सूर्य का मकर राशि में प्रवेश, जिस कारण से इसे मकर संक्रांति भी कहते है, साथ ही सूर्य का उत्तरायण होना और दुसरा भारत एक कृषि प्रधान देश हैं और भारत के सभी क्षैत्रों में किसी ना किसी धान्य की खेती होती है जो इस समय अपने पुरे शबाब पर होती है जिसकी कटाई के पुर्व लहलहाते हुये देखना और खुशी में उसका उत्सव मनाना होता है| जिस कारण सभी प्रांतों में उसके भाषा या बोली और परंपरा के अनुसार यह त्योहार जैसे पोंगल, लोहडी आदि कई नामो से विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है|

मराठी परिवारों की संक्रांति  :
                         महाराष्ट्र में भी यह त्योहार जल्लोश (उत्साह पुर्वक) के साथ मनाया जाता है| यहां संक्रांति पर तिल और गुड का अत्यधिक महत्व है क्योंकि इस मौसम में इनकी आवक भी बहुत होती है और स्वास्थ्य वर्धक भी बहुत है| तिल से हड्डीयों को मजबुती मिलती है वहीं गुड रक्त संवर्धन के लिये बहुत लाभकारी होता है इसलिये यहां तिल और गुड से बने लड्डु एक दुसरे को बांटने का रिवाज हैं, वहीं सुहागनें (सुहागन औरतें) एक दिन पहले से ही अपने विशिष्ट प्रकार के हल्दी कुंकु(कुमकुम) की तैयारी में जुट जाती हैं, जिसमें पाँच काले रंग की बहुत छोटी छोटी मटकियां जिन्हे सुगड कहा जाता है वो लेकर आती हैं। फिर उनके बाहरी साईड को हल्दी और कुंकू को अलग- अलग थोडा सा पानी से गीला कर के उंगली की सहायता से ऊपर से नीचे एक हल्दी की और एक कंकू की लाईन बना कर उनकी सजावट करती हैं| फिर उसमें मौसमी खाद्य चीजें जैसे बोर, गन्ने के छोटे छोटे कटे हुए टुकडे, छोड, बाल्लोर की फली और कच्ची मुंग दाल और चावल की खिचडी ये सभी मिक्स करके और इसमें एक सिक्का डाल कर तैयार करके उनके अंदर भर कर या फिर अलग से किसी बर्तन में देने के लिये रखती हैं साथ ही सुगड के ऊपर मिट्टी के ही दीये का ढक्कन रखा होता है जिसमें एक पर हल्दी, एक पर कुंकु और बाकी पर कांटे वाला तिल का विशेष प्रकार का सुखा हलवा या तिलगुड का लड्डु रखा जाता है और इस प्रकार ये सुगड संक्रांति के हल्दी कुंकु के लिए तैयार हैं जिसके साथ कोई एक वस्तु जिसे आवा कहा जाता है और कांटेदार तिल्ली का हलवा ये सब बाटने के लिए तैयार करके रखते हैं|

हल्दी कुंकुं अर्थात संक्रांति का आदान-प्रदान, दान  :                                            संक्रांति वाले दिन सुहागने विशेषत: काली साडी या जरी बार्डर की कोई भी साडी पहनकर पुरे पारंपरिक साज श्रृंगार के साथ तैयार होकर विशेष पर्व काळ (समय) पर सर्व प्रथम अपने घर के देवघर में विराजमान भगवान को हल्दी कुंकू लगाकर उनके समक्ष एक वाण अर्थात एक सुगड, काटेदार हलवा, तिलगुड का लड्डु और आवा रखकर उन्हे धन्यवाद कहते हुए उनका आशिर्वाद
 (नई दुनिया नायिका (11 /01 /2020 ) में प्रकाशित का चित्र ) 
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हैं फिर एक सुगड तुलसी के पौधे को धन्यवाद स्वरुप रखती हैं और फिर घर के बडे बुजुर्गों का आशिष लेकर अब बचे हुए तीन सुगड और बाकी का सामान लेकर हल्दी कुंकुं के विशेष आयोजन में शामिल होती हैं जिसमें बैठ कर, एकप्रकार की विशिष्ट पद्धति से सुहागने पहले, अपने हल्दी कुंकुं वाले सुगडे में से ही एक दुसरे को अति प्रेम से हल्दी कुंकुं लगाती हैं फिर अपने साडी के पल्लू से ही उठाकर उन्हें, उसे सौपती है फिर वही प्रक्रिया सामने वाली सुहागन भी दोहराती है और उसे, उसके सुगड हल्दी कुंकुं लगाकर वापस करती है| यह प्रक्रिया जीवन का गुढ रहस्य बताती है कि किसी भी वस्तु या मनुष्य को आप पल्लू से बांध कर नहीं रख सकते हैं, किसी भी चीज का मोह न रख कर ही जिन्दगी को सरलता से जिया जा सकता है और जिस प्रकार से जिस भाव से आप किसी को कुछ दोगे बस वैसा ही आप बदले में पाओगे उसी प्रकार तिल्ली का मीठा कांटेदार हलवा समझाता है कि जीवन में कोई परिस्थिति देखने में और सहने में कठिन लग रही है तो भी उसे सहर्ष स्वीकारें क्योंकि उसके बाद ही ख़ुशी और सूख का स्वाद और ज्यादा मीठा मिल सकता है| खैर अब इसके उपरांत हलवा, तिलगुड और फिर आवा अर्थात दान करने के लिये लायी हुई वस्तु सभी एकदुसरे को देते हैं और हर वर्ष संक्रांति पर यह पारंपरिक हल्दीकुंकुं की ये प्रक्रिया हर्षोल्लास से विधिवत संपन्न करते हैं।


पहली संक्रांति और काले रंग का महत्व :
                                   अमुमन हम लोग काले रंग को अशुभ मानते हैं पर मराठी परिवारों में विवाह के बाद की पहली संक्रांति का उत्सव या परिवार में हुये किसी भी नवजात शिशु के पहली संक्रांति उत्सव पर, विशेष तौर पर काले रंग के कपडे पहने और पहनाऎं जाते हैं जिसका मुख्य कारण शायद यह बताना है कि कोई भी रंग अशुभ नही होता, साथ ही नव-विवाहीत जोडे या फिर नवजात शिशु, जिसकी भी पहली संक्रांति होती है उसका रथ सप्तमी तक कभी भी एक दिन संक्रंति का विशेष सण(उत्सव) मनाया जाता है जिसमें तिल्ली वाले कांटेदार हलवे से बने आभुषण पहनायें जाते हैं जो सफेद रंग के होते हैं तो काले कपडों से उनका उठाव अच्छा आता है और उत्सव मुर्ति सुंदर दिखते हैं।
इसी में नवजात शिशु का बोर-लुट का कार्यक्रम भी उसकी पहली संक्रांति के उपलक्ष में उसके हमउम्र बच्चों को बुलाकर किया जाता है।

विशेष खाना पान:
                 मराठी परिवारों में भी संक्रंति को विशेष उत्सव के रुप में मनाया जाता है जिसमें संक्रांति के एक दिन पहले के दिन को भोगी का दिन कहा जाता है और इस दिन घर के सभी सदस्य कुटी हुई तिल और हल्दी में दुध मिलाकर उसको उबटन की तरह स्नान के पुर्व, शरीर पर लगाकर और फिर निकालकर नहाते हैं और इस दिन खाने में गुड की रोटी तिल डाल कर बनायी जाती है साथ ही तिल, लाल मिर्च और लसहन की सुखी चटनी, मौसम की पहली बाल्लौर-गाजर की सब्जी साथ में मटर की खिचडी, पापड और बेसन की पाट वडी आदि विशेष व्यंजन बनाये जाते हैं| कुछ लोग यही सब संक्रांति के दिन भी बनाते हैं साथ ही संक्राति वाले दिन ही तिलगुड का लड्डु या वडी का भोग लगाकर खाते हैं वहीं संक्रांति के दुसरे दिन को करी दिन कहा जाता है जिसमें आटे के चिले, इलायची वाले दुध के साथ, बेसन के चिले, हरी चटनी के साथ और विशेष गुड के चिले भी बना कर खाये जाते हैं।

मेल मिलाप का उत्सव :
                    मराठी परिवार रथसप्तमी तक कभी भी एक दूसरे के घर तिल गुड़ लेने जाते हैं| जिसमें बड़ों का आशीर्वाद लेना और इस भागमभाग भरी दुनिया में मिलने का बहाना भी मिलता है और साथ ही महिलाऐं एक दूसरे को अपना आवा अर्थात दान की वस्तु और तिल्ली का कांटे वाला हलवा भी हल्दी कुमकुम लगाकर देती हैं|   

खेलों से भी जुडाव :
                      इस त्योहार को तो मैदानी खेलों से भी जोडा गया है जिसका मुख्य कारण सर्दी के  ठिठुरन भरी ठंडे कोहरे के बहुत दिनो बाद संक्रांति के दिन से ही सूर्य का तेज धीरे धीरे बढने लगता है और  सूर्य की कोमल किरणों से सीधे सीधे हमें विटामिन डी मिलता है जो घरों के अंदर रहकर नही बाहर आने पर ही मिलेगा इसी उद्देश्य से कहीं पतंग उडाने की तो कहीं गिल्लीडंडा खेलने की भी परंपरा है|     

इसप्रकार पुरे भारत में ही इस प्राकृतिक और भौगोलिक त्योहार को अलग अलग प्रकार से उस प्रांत की प्रकृति, सभ्यता और परंपरा के अनुरुप हर्षोल्लास से मनाया जाता है और यह बात तो सर्वमान्य है कि हम प्रकृति से जुडे हुये हैं और इसी से हमारा जीवन सुचारु रुप से चल सकता है सो इसकी महत्ता को समझते हुये और जिवन में एकरसता में उमंग भरने के लिये ही हमारे सारे त्योहर हैं तो क्यों ना हम हर उत्सव को आंनद से मनाऎं|    
 (नई दुनिया नायिका (11 /01 /2020 ) में प्रकाशित इस लेख का विस्तृत रूप )  
भावन नेवासकर
E-mail ID: ba.newaskar@gmail.com

Tuesday 24 May 2016

WhatsApp ज्ञान गंगा

इंटरनेट की दुनिया मे सोशल नेटवर्किंग साइटस ने जहां दुर बैठे हमारे रिश्तेदारों और परिचितों से सीधे जोड दिया हैं, वहीं एक बहुत बडा मंच दिया है, अपने अंदर छुपी प्रतिभा को सबके सामने रखने का और अपने विचारों को अभिव्यक्त करने का, बहुत से लोगो को इससे फायदा भी हुआ है| तो कुछ लोग लाईक, डिसलाईक के चक्कर मे डिप्रेस्ड भी होते है| सब चल रहा है| कोई बात नही बढीया है| पर मजा तो तब आता है, जब बडे-बडे उपदेश वाली पोस्ट डाली जाती है| तो कई बार ऎसा लगता है, कि सब इतने समझदार और ज्ञानी है, तो दुनिया मे फिर ये सब मनमुटाव, राग-द्वेष, लडाई-झगडा, मारपीट, भ्रष्टाचार और पता नही क्या क्या कर कौन रहा है? व्हाटसएप पर क्या ज्ञान गंगा बह रही है| हर रोज उच्च विचार या उक्तियाँ, प्रवचन माला वाली पोस्ट है अर्थात ही ज्यादातर ये पोस्ट फारवर्डेड ही होती हैं| पर कभी कभी जब कोई ऎसा व्यक्ति उपदेशों को पोस्ट करता है, जिसने कभी वैसा व्यवहार अपनी जिन्दगी मे किया ही ना हो, तो उन उपदेशों का जो मोल है, वही खत्म हो जाता है| एक बार एक ग्रुप मे एक सज्जन ने सुबह जल्दी उठने के बहुत सारे फायदे की लिस्ट पोस्ट कर दी और सभी को पता है, कि ये बिना काम के कभी भी जल्दी नही उठते, चुँकि मेरे इनसे मजाकिया संबंध है, सो मैने हिम्मत करके कह दिया, कि 'आप ने जो लिखा है, वैसा तो आप खुद ही नही करते', तो जनाब ने भी शानदार जवाब दिया, “अच्छी बातें और उपदेश दुसरों का भला करने के लिये होते है, खुद के लिये थोडे ही होते है, अब मै इतना भी स्वार्थी नही, की ये सब मै नही कर रहा इसलिये आपको भी ना बताऊ”, तो लो ऎसे उत्तर मिलते हैं| वैसे ही एक सज्जन ने आज तक पैसे बचाने के लिये कितने ही रिश्तेदारों को तकलीफ दी, वो किसी को मान दे ना दे उन्हे सबने मान देना ही है| ऎसे ऎसे व्यक्ति भी जब रिश्तों की परिभाषा समझाने वाले पोस्ट करते है या दार्शनिकता से भरे बडे बडे उपदेशो वाली कहानियाँ, उक्तियाँ पोस्ट करते है, तो इतने सुंदर विचार बेमानी हो जाते हैं, अर्थहीन लगने लगते है| फिर मुझे वे शानदार सज्जन याद आते है, कि सच मै शायद ये सारे उपदेश केवल पढने के लिये होते है, उसे अपने जीवन मे उतारने के लिये नही पर कुछ लोग जो सालों से केवल इसलिये उपदेश और उक्तियाँ पढते आ रहे है. कि हम जीवन के इस माया जाल मे फँस कर कहीं कुछ गलत ना कर बैठे, हमारे किसी भी स्वार्थी इच्छा कि वजह से किसी को कोई तकलिफ ना हो, इसके लिये रोज एक जीवन दार्शनिक उक्ती पढते हैं| पर आज तो ये बस दिखावा बन के रह गये हैं| कई लोग तो बेझिझक बोलते  भी है, कि उच्च विचारों से जीवन नही चलता वास्तविकता अलग होती है फिर जब इन विचारों को अपनाना ही नही है, तो क्या ये लाईक, बहुत अच्छे, मस्त, शानदार विचार जैसे रिप्लाय के लिये ही रह गये है?

Tuesday 27 October 2015

भारत देशा च अभिमान

हो मला अपल्या भारत देशा च नागरिक असल्या अभिमान वाटतो जरी विश्व मधे भारता ची ओळख घाणीत राहणारे, वाटेल तिथे वाटेल ते करणारे ची असली तरी ही आज किती तरी गोष्टी अश्या आहे जे पुढारलेले देश ही स्वीकार करतात जे सहस्त्र वर्षां पुर्वी अमचे पुर्वज म्हणायचे जस जल्मा ला आले ल्या बाळ ची नाळ साभाळुन ठेवायची तेला अता विदेशी ही म्हणतात की त्यानी बरेच आजार नाहीशे होतात, नैसर्गिकता चे महत्व, योगासन किती तरी गोष्टी आहे अमच्या इथे निसर्गा प्रमाणे अमचे सणवार ही वर्ष भर साजरे होतात, आम्ही  भारत वासी सर्व जाती आणी भाषां चा सन्मान करतो कारण इथे किती तरी निरनिराळे जाति चे वेग वेगळे लोक राहतात| 
    आज विपरित परिस्थिती  जरी काही चुक लोकां मुळे आहे पण काळो काळी काही कंस, जयचंद, दुर्योधन झाले तिथे च आर्यभट्ट, अशोक, विवेकानंद पण झाले तर या युगात डॉ  कलाम अमचे मिसाईल मेन ही झाले, म्हणुन च माला माझ्या देशा चा अभिमान आहे!             

मराठी कथा : स्मृतिधारा

                                                     \\आकाशवाणी इंदौर(म.प्र.) वर प्रसारित//

संपदा ची मुलगी,  अदिती आज घरीच होती, तिला इन्फेक्शन झाल्या मुळे, संपदा ने तिला शाळेत नव्हत पाठवल, तर अदिती कंटाळुनच, ड्राईंग काढत बसली होती, तेवढयात तिला काही तरी आठवल आणि ती संपदा ला म्हणाली,  "आई या महिन्यात तर विजया आजी चा वाढदिवस असतो न ग?" अता संपदाच तर विचारुच नका, अदिती चा तोंडुन हे ऎकुन  ती मना पासुन आंनदित झाली, आणी लागलिच  तिला मीठीत घेतल अन  भावुक होऊन म्हणाली, " हो न ग बाळ, तुला छान आठवल, ह्या महिन्यात खरच तिचा वाढदिवस असतो| अन या वर्षी च्या, वाढदिवसा ची एक गम्मत सांगु का तुला?  म्हणजे,  आज जर तुझी विजया आजी असती न तर ती पुर्ण पंचाहत्तर वर्षा ची राहिली असती”,  हो, अदिती ची विजया आजी म्हणजे संपदा च्या आईला देवाज्ञा होऊन बरेच वर्ष झाले होते, तरी पण आज ही तिन, फोटो आणि तिच्या सर्व आठवणी मधेच अपल्या आई ला जीवंत ठेवल होत, ती जशी अपल्या आई ची पुण्यतिथी ला आठवण ठेवुन तिच्या फोटो ला हार घालुन दिवा लावते,  तसच आज ही तिचा वाढदिवस ही साजरा करत असे,  येवढ च नव्हे, तर अपल्या दोन्ही  मुला -मुलीना सुद्धा त्यांच्या  आजी अजोबां बद्दल सांगत असे,  त्या मुळे त्या दोघाना  देखील जेवढ अपल्या राहत्या मंदा आजी च वेड आहे,  तेवढच त्यांच्या दिवंगत आजी अजोबा बद्दल ची ही माहीति पण आहे,  आणि संपदा व तिचा नवरा अनिल दोघ ही सदैव जैवढ कौतुक अपल्या आजु-बाजु च्या माणसांच करत असतात तेवढच ते अपल्या दिवगंता चे ही कौतुक, त्यांच्या    आठवणी  काढुन करतात, त्या मुळे त्यांच्या दोघ मुलाना   देखील त्या सर्वांची माहिती आहे, कि ते कसे होते? आणि मला तर अस वाटतय कि हेच श्रद्धे ने नेहमी अपल्या दिवंगत आप्तेष्टांची आठवण करणे त्यांचे कृतार्थ होणे, म्हणजेच खरया अर्था ने श्राध्द करणे नाही का झाले?  असो, अता अदिती ला तर वाढदिवसा करता ग्रिटींग बनवायच नविन कार्य सापडल होत, तर ती ते बनवण्यात लागुन गेली, अन इकडे आज तिन  विजया आजी च्या वाढदिवसा ची गोष्ट काढल्या मुळे  संपदा अपल्या आई सोबती च्या  त्या जुन्या आठवणीन च्या स्मृतिधारा  मधे वाहु लागली,  तिला आठवल कि तिची आई सांगत असायची. कि ती नवरात्री च्या दिवसातच झाली होती म्हणुनच तिच्या आई-वडिलानी तिच नाव दुर्गा अस ठेवल होत, आणि लग्नानंतर संपदा च्या   बाबां ने तिच नाव विजया केल”,  पण दोन्ही नाव देखील तिच्या त्या व्यक्तिमत्वाला शोभत असे. कारण, ती शरीर दंड आणी मन दोन्ही कडुन सक्षम होती. ती सर्व कामात दक्ष, चपळ आणी व्यावहारीक होती. संपदा ला सर्व  आठवत होत कि कस तिच्या आईन, बाबां च्या आजार पणात ही हिम्मत न हारता खंबीर पणानी सर्व गोष्टी ना तोंड दिल होत आणि त्यानंतर ही हॅसमुखच, म्हणुनच तर संपदा ची आई तिची जणु हिंमत, आणी खुब जवळ ची मैत्रीणच नव्हे तर तिची एक छान सल्लाहकार ही होती, ती कोणतीच गोष्ट अपल्या आई ला बिना विचारता नाही करायची, इतकेच नव्हे तर  लग्ना पुर्वी सगळे  तिला आई वेडीच म्हणायचे, कारण, तिला आई शिवाय तर झोप सुध्दा यायची नाही, ह्या गोष्टी वरुन बहुधा दोघी आई लेकी चे वादावाद ही व्हायचे,  तिची आई तिला म्हणायची,  " अग संपदे अता तू मोठी झाली आहेस, मी तुझे लग्न करणार आहे अता, जरा वेगळ झोपण सुरुकर " तर संपदा अगदी स्पष्ट शब्दात म्हणायची,  "मी तुम्हा दोघाना सोडुन कुठेही जाणार नाही ", तेंव्हा तिची आई तिची समजुत  घालायची, अग अता अमच वय होतय, अम्ही किती दिवसा चे तुझे साथी, अन मग पुढे अमच्या गेल्यानंतर तुझे काय होणार? तु एकटी कशी जगणार? अन अम्ही दोघ  तुझ्या काळजी  तच वर जाणार की काय? ",  अपल्या आईचे इतके काळजीपुर्ण विचार एकुन, तिची चिंता दुर करण्या करता व हा विषय टाळुन तिला हसविण्या करिता संपदा लाडवुन नाटकीपणा ने हिन्दी चित्रपटातल हे प्रसिध्द गाण "ऎ मेरी जौहर जबी तुझे मालुम नही" म्हणायची.  तर येवढयात तर तिची आई नवी तरुणी सारखी लाजुन हसत हसत म्हणायची. “बसग चावट कुठली आणी जोरात हाथ जोडुन नमस्कार करायची तिला। असो,  पण तरी ही तिच्या आई ने तिची समजुत घालुन, तिच्या स्वभावा ला शोभेल असा मुलगा शोधुन, तिच लग्न लाऊनच दिल.  पण त्यांतर ही तिचा आई विषयी चा ओढा काही कमी नाही झाला, कारण तीच अपल्या आई वर काही जास्त च जीव होता, तीची आई जणु तिची जीव की प्राणच  होती, त्या मुळे अपल्या आई ला जरा सा ही त्रास झालेला तिला परवडायचा नाही, आणि त्यास आईची शेवटची इच्छा ती पुर्ण नव्हती करू शकली, ह्याची खंत तिला नेम्ही साळत असे, तिच्या आई ला अखेरच्या काळी तिच्या घरी यायचे होते, पण त्या क्षणी परिस्थितीवश ते लागलिच काही  शक्य  नव्हते,  तरी ही  त्या दिवशी संपदा च नव्हे तर तिचा नवरा  अनिल देखिल तिच्या आई ला बोलला होता कि, " हो आई लवकर च तुम्हाला अपल्या घरी घेऊन जाऊ",  पण दुर्दैवा ने ती वेळच नाही आली.  कारण त्याच रात्री  तिच्या आई ला देवाज्ञां झाली. त्या गोष्टी चा हिच्या मना ला फार त्रास झाला होता. कि जिच्या करता मी काही ही करायला नेम्ही तैयार असायची, तिच असी एकएकी मला सोडुन कशी काय चालली गेली?  पण म्हणतातन, कोणी किती ही प्रिय असल, तरी त्याच्या सोबत, हे जग सोडुन जाता येत नाही, अण किती ही तीव्र ईच्छा असली तरी ही जीवन, हे परत माघे नेता येत नाही अन पुढच्या कर्त्तव्याना ही पाठ दाखवता कामाच नाही म्हणुनच भवतैक  कोणवाचुन ही जीवन हे थांबत नसत, जीवना चा हा प्रवाह सतत चालत असतो,  इथे माणस येतात अणी जातात, राहतात तर नुसत्या आठवणी, जस  दर रोज सुर्य उगवतो आनि मावळतो च, तसच जीवनाच हे रहाटगाडग  ही चालतच असत, तसच तिची आई गेल्यानंतर ही हळू हळू तिच जीवन सामान्य होऊ लागल होत. मग  दोन वर्षानंतर पहिल्यांदा तिची आई तिच्या स्वप्नात आली, अन म्हणाली, “ संपदा.  मी तुझ्या घरी येते",  येवढच म्हणुन जाऊ लागली तर तिने लागलिच अपल्या आई चा हाथ घट्ट धरुन घेतला आणि म्हणाली,   "आई तु मला सोडुन परत नको न जाऊ", आणि दचकुन उठली.  इकडे तिकडे पाहते तर हे काय?  तिची आई तिला कुठेच दिसेना, तिला समजल, की हे तर स्वप्न च होत,  तिला वाटल की तिच्या आई ची अखेर ची, तिच्या घरी यायची ईच्छा, ती पुर्ण नव्हती करु शकली. ही गोष्ट नेहमी  तिच्या मना ला खटकत असे, म्हनुनच अस स्वप्न तिला पडल असेल, पण तेही इतक्या वर्षानंनतर अस स्वप्न का पडाव? अस तिला कोडच पडल होत, असे उलट सुलट  विचार तिच्या मनात होते, तरी  ही काहीस दिवसा ने अपल्या गृहस्थी  च्या कामात, ती विसरु लागली, तर एके दिवशी तिला कळल. कि ती परत आई होणार आहे,  तर त्याच वेळी तिला, क्षण भरा ला अस वाटल कि ते स्वप्न खर तर नव्हत, खरोखर आईच तर तिच्या स्वप्नात नव्हती आली, अण काय जणु ती स्वत:च परत येणार आहे  माझ्या जवळ,  कारण कुठे तरी तीन ऎकल होत कि मना पासुन केलेली आखेर ची ईच्छा साकार करण्या करता संपुर्णसृष्टी पण त्यात लागुन जाते. असो, संपदा च्या मनात अश्या सगळ्या  आठवणीची मालिका चालत होती. तेवढ्यात च अदिती नी तिला हलवुन वर्तमानात आणल आणी अति उत्साहा ने  तिनी बनवलेल ग्रिटींग दाखवु लागली आणी इथेच संपदा ची  स्मृतिधारा थांबली।        

Saturday 27 June 2015

शिक्षा व्यवसाय नही है

सभी स्कूलों का नया सत्र शुरु होने वाला है, कोई उसी स्कूल मे है तो कोई फीस बढने की वजह  से किसी अन्य स्कूल मे जाने की सोच रहा है आज जितने माता-पिता या अभिभावक बच्चों के स्कुल एडमीशन को लेकर ऊहापोह  की स्थिती मे रहते हैं उतने शायद कुछ साल पहले तक ये स्थिती नही थी चुँकि हर अभिभावक अपने बच्चों को अच्छे से अच्छे स्कूल  मे दाखिल कराना चाहते हैं साथ ही बजट भी देखना होता है फिर बच्चे का सर्वांगिण विकास भी चाहते हैं जिसके तहत वह फर्राटेदार  अंग्रेजी भी बोलना सीखे, किसी एक्टिवीटी मे भी बच्चा महारत हो, बच्चे सभ्य व संस्कारी भी हो, वो स्मार्ट भी हो और   वह जमाने के साथ जैसे को तैसे वाला भी हो ये सभी स्कूल  से ही मिलना  चाहिये इसलिये एक बहुत अच्छे स्कूल  की तलाश रहती है, सही भी है, बच्चे को एक अच्छा आधार देने के लिये एक अच्छे स्कूल  की दरकार तो होती ही है, अब यदि अभिभावक उच्च वर्ग अर्थात जिन्हे रुपये पैसों की कोई कमी नही है, उन्हे  बेझिझक किसी भी बडे स्कूल  मे एडमीशन कराने मे कोई मुश्किल नही आती यंहा तक की चाहे जो स्कूल  की फीस हो वो देने के लिये भी तैयार होते हैं, क्योंकि कुछ लोगों का तो स्टेटस सिंबल भी होता है की हमारा बच्चा इतने महँगे स्कूल  मे पढता है वहीं निम्न वर्ग अर्थात सीमित आय वाले किसी भी मध्यम स्कूल मे दाखिला कराने को मजबुर होता है क्योंकि उसे किसी भी तरह अपने बच्चे को पढाना तो है और वे यहां समझौता कर लेते है, पर सबसे बडी समस्या मध्यम वर्गीय आय वाले अभिभावको के साथ आती है, वे शिक्षा के मामले मे किसी भी प्रकार से समझौता करना नही चाहते, वे अपने बच्चे को अच्छे से अच्छे स्कूल  मे दाखिल कराना चाहते हैं चुँकि इस श्रेणी मे ज्यादातर नौकरी पेशा लोग है या फिर छोटे व्यवसायी है| ये वर्ग दिन रात अपना स्टेट्स बढाने  मे लगा  होता है और ये अपने बच्चों को इतना संघर्ष नही करवाना चाहते जितना ये खुद कर रहे होते हैं, जिसके चलते वे उन्हे अच्छे से अच्छे स्कूल  मे एडमीशन करना चाहते है, जंहा इनका बच्चा स्मार्ट बने और बडा होकर उच्च पदों पर आसिन हो या सफल व्यवसायी बने जिसके लिये अच्छा स्कूल  और अच्छा शिक्षण ही एकमात्र विकल्प होता है, पर समस्या तब आती है जब किसी बडी स्कूल  मे बच्चे को दाखिल कराने के बाद जैसे तैसे उस स्कूल  की फीस के साथ अपने बजट का सामजस्य बैठाते हैं और उधर हर साल स्कूल  अपनी फीस बढाती जाती है तो बस मध्यम वर्गीय परिवार की तो अर्थव्यवस्था ही गडबडाने लगती है उस  पर हर साल कुछ पुस्तकों मे थोडा सा तब्दिल कर देना जिससे आपको विवश कर दिया जाता है नये पुस्तक खरिदने के लिये, जहां हमने तो पाचवी कक्षा से कॉलेज तक सेकण्ड हेंड पुस्तके पढ के या पुस्तकालय से पढ के निकाल दी ये हर साल कोर्स मे थोडा फेर बदल कर उसमे भी राहत की सांस नही लेने देते, स्कूल  को शिक्षा का मंदिर कहा जाता है, पर आजकल तो शिक्षा को पैसे कमाने का व्यवसाय बना के रख दिया है विडंबना ये है कि इस ओर   किसी का ध्यान ही नही जा रहा है| हर वर्ष कुछ पालक इस पुरे तंत्र के खिलाफ आवाज उठाते हैं पर कुछ भी नही होता ओर तो ओर इस साल तो जो नया नियम लाया गया है, उसने तो ओर भी कहर ढा दिया है वह भी अभिभावकों के हित मे नही है, जब कोई सुनने वाला ही ना रह गया हो तो अब मध्यम वर्गीय परिवार बेचारा, असहाय और खुद को ठगा सा महसुस कर रहा है, करे भी तो क्या करे? पर अब वक्त आ गया है कि सभी को एकजुट होकर आवज उठाना ही होगी केवल सोशल मीडिया पर मेसेज पोस्ट करने से काम नही होने वाला है वहीं सरकार को भी अब कुछ तो ध्यान इस और देना ही चाहिये, आखिर इस देश के बच्चो की   शिक्षा का सवाल है, जो देश का भविष्य है ।               
"संपादित रुप नईदुनिया नायिका मे प्रकाशित"