"तिळ गुळ घ्या अन गोडगोड बोला"
ये मकर संक्रांति
पर तिल और गुड से बने लड्डु या वडी(चक्की) देते हुए मराठी भाषी परिवारों में बोली जाने
वाली एक प्रचलित कहावत है जिसका अर्थ है तिल-गुड खाओ और मीठा-मीठा बोलो|
मकर संक्रांति
वैसे अलग अलग नामो से भारत के हर प्रदेश, हर क्षैत्र में भौगोलिक और प्राकृतिक दो मुख्य
कारणों से मनाई जाती है | पहला ऐसा माना जाता है कि इसी दिन सूर्य का मकर राशि में
प्रवेश, जिस कारण से इसे मकर संक्रांति भी कहते है, साथ ही सूर्य का उत्तरायण होना
और दुसरा भारत एक कृषि प्रधान देश हैं और भारत के सभी क्षैत्रों में किसी ना किसी धान्य
की खेती होती है जो इस समय अपने पुरे शबाब पर होती है जिसकी कटाई के पुर्व लहलहाते
हुये देखना और खुशी में उसका उत्सव मनाना होता है| जिस कारण सभी
प्रांतों में उसके भाषा या बोली और परंपरा के अनुसार यह त्योहार जैसे पोंगल, लोहडी
आदि कई नामो से विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है|
मराठी परिवारों की संक्रांति :
महाराष्ट्र में भी यह त्योहार जल्लोश
(उत्साह पुर्वक) के साथ मनाया जाता है| यहां संक्रांति पर तिल और गुड का अत्यधिक महत्व
है क्योंकि इस मौसम में इनकी आवक भी बहुत होती है और स्वास्थ्य वर्धक भी बहुत है| तिल
से हड्डीयों को मजबुती मिलती है वहीं गुड रक्त संवर्धन के लिये बहुत लाभकारी होता है
इसलिये यहां तिल और गुड से बने लड्डु एक दुसरे को बांटने का रिवाज हैं, वहीं सुहागनें (सुहागन औरतें) एक दिन पहले से ही अपने विशिष्ट प्रकार के हल्दी कुंकु(कुमकुम) की तैयारी
में जुट जाती हैं, जिसमें पाँच काले रंग की बहुत छोटी छोटी मटकियां जिन्हे सुगड कहा
जाता है वो लेकर आती हैं। फिर उनके बाहरी साईड को हल्दी और कुंकू को अलग- अलग थोडा
सा पानी से गीला कर के उंगली की सहायता से ऊपर से नीचे एक हल्दी की और एक कंकू की लाईन
बना कर उनकी सजावट करती हैं| फिर उसमें मौसमी खाद्य चीजें जैसे बोर, गन्ने के छोटे
छोटे कटे हुए टुकडे, छोड, बाल्लोर की फली और कच्ची मुंग दाल और चावल की खिचडी ये सभी
मिक्स करके और इसमें एक सिक्का डाल कर तैयार करके उनके अंदर भर कर या फिर अलग से किसी
बर्तन में देने के लिये रखती हैं साथ ही सुगड के ऊपर मिट्टी के ही दीये का ढक्कन रखा
होता है जिसमें एक पर हल्दी, एक पर कुंकु और बाकी पर कांटे वाला तिल का विशेष प्रकार
का सुखा हलवा या तिलगुड का लड्डु रखा जाता है और इस प्रकार ये सुगड संक्रांति के हल्दी
कुंकु के लिए तैयार हैं जिसके साथ कोई एक वस्तु जिसे आवा कहा जाता है और कांटेदार तिल्ली
का हलवा ये सब बाटने के लिए तैयार करके रखते हैं|
हल्दी कुंकुं अर्थात संक्रांति का आदान-प्रदान, दान : संक्रांति वाले दिन सुहागने विशेषत: काली साडी
या जरी बार्डर की कोई भी साडी पहनकर पुरे पारंपरिक साज श्रृंगार के साथ तैयार होकर
विशेष पर्व काळ (समय) पर सर्व प्रथम अपने घर के देवघर में विराजमान भगवान को हल्दी
कुंकू लगाकर उनके समक्ष एक वाण अर्थात एक सुगड, काटेदार हलवा, तिलगुड का लड्डु और आवा
रखकर उन्हे धन्यवाद कहते हुए उनका आशिर्वाद
|
(नई दुनिया नायिका (11 /01 /2020 ) में प्रकाशित का चित्र ) Link https://naiduniaepaper.jagran.com/epaperimages/11012020/Nayika/10NYK-pg1-0/d693.png |
हैं फिर एक सुगड तुलसी के पौधे को
धन्यवाद स्वरुप रखती हैं और फिर घर के बडे बुजुर्गों का आशिष लेकर अब बचे हुए तीन सुगड
और बाकी का सामान लेकर हल्दी कुंकुं के विशेष आयोजन में शामिल होती हैं जिसमें बैठ
कर, एकप्रकार की विशिष्ट पद्धति से सुहागने पहले, अपने हल्दी कुंकुं वाले सुगडे में
से ही एक दुसरे को अति प्रेम से हल्दी कुंकुं लगाती हैं फिर अपने साडी के पल्लू से
ही उठाकर उन्हें, उसे सौपती है फिर वही प्रक्रिया सामने वाली सुहागन भी दोहराती है
और उसे, उसके सुगड हल्दी कुंकुं लगाकर वापस करती है| यह प्रक्रिया जीवन का गुढ रहस्य
बताती है कि किसी भी वस्तु या मनुष्य को आप पल्लू से बांध कर नहीं रख सकते हैं, किसी
भी चीज का मोह न रख कर ही जिन्दगी को सरलता से जिया जा सकता है और जिस प्रकार से जिस भाव से आप किसी को कुछ दोगे
बस वैसा ही आप बदले में पाओगे उसी प्रकार तिल्ली का मीठा कांटेदार हलवा समझाता है कि
जीवन में कोई परिस्थिति देखने में और सहने में कठिन लग रही है तो भी उसे सहर्ष स्वीकारें
क्योंकि उसके बाद ही ख़ुशी और सूख का स्वाद और ज्यादा मीठा मिल सकता है| खैर अब
इसके उपरांत हलवा, तिलगुड और फिर आवा अर्थात दान करने के लिये लायी हुई वस्तु सभी एकदुसरे
को देते हैं और हर वर्ष संक्रांति पर यह पारंपरिक हल्दीकुंकुं की ये प्रक्रिया हर्षोल्लास
से विधिवत संपन्न करते हैं।
पहली संक्रांति और काले रंग का महत्व :
अमुमन हम लोग काले रंग को अशुभ मानते हैं
पर मराठी परिवारों में विवाह के बाद की पहली संक्रांति का उत्सव या परिवार में हुये
किसी भी नवजात शिशु के पहली संक्रांति उत्सव पर, विशेष तौर पर काले रंग के कपडे पहने
और पहनाऎं जाते हैं जिसका मुख्य कारण शायद यह बताना है कि कोई भी रंग अशुभ नही होता,
साथ ही नव-विवाहीत जोडे या फिर नवजात शिशु, जिसकी भी पहली संक्रांति होती है उसका रथ
सप्तमी तक कभी भी एक दिन संक्रंति का विशेष सण(उत्सव) मनाया जाता है जिसमें तिल्ली
वाले कांटेदार हलवे से बने आभुषण पहनायें जाते हैं जो सफेद रंग के होते हैं तो काले
कपडों से उनका उठाव अच्छा आता है और उत्सव मुर्ति सुंदर दिखते हैं।
इसी में नवजात
शिशु का बोर-लुट का कार्यक्रम भी उसकी पहली संक्रांति के उपलक्ष में उसके हमउम्र बच्चों
को बुलाकर किया जाता है।
विशेष खाना पान:
मराठी परिवारों में भी संक्रंति को विशेष
उत्सव के रुप में मनाया जाता है जिसमें संक्रांति के एक दिन पहले के दिन को भोगी का
दिन कहा जाता है और इस दिन घर के सभी सदस्य कुटी हुई तिल और हल्दी में दुध मिलाकर उसको
उबटन की तरह स्नान के पुर्व, शरीर पर लगाकर और फिर निकालकर
नहाते हैं और इस दिन खाने में गुड की रोटी तिल डाल कर बनायी जाती है साथ ही तिल, लाल
मिर्च और लसहन की सुखी चटनी, मौसम की पहली बाल्लौर-गाजर की सब्जी साथ में मटर की खिचडी,
पापड और बेसन की पाट वडी आदि विशेष व्यंजन बनाये जाते हैं| कुछ लोग यही सब संक्रांति
के दिन भी बनाते हैं साथ ही संक्राति वाले दिन ही तिलगुड का लड्डु या वडी का भोग लगाकर
खाते हैं वहीं संक्रांति के दुसरे दिन को करी दिन कहा जाता है जिसमें आटे के चिले,
इलायची वाले दुध के साथ, बेसन के चिले, हरी चटनी के साथ और विशेष गुड के चिले भी बना
कर खाये जाते हैं।
मेल मिलाप का उत्सव :
मराठी परिवार रथसप्तमी तक कभी भी एक दूसरे के घर
तिल गुड़ लेने जाते हैं| जिसमें बड़ों का आशीर्वाद लेना और इस भागमभाग भरी दुनिया में
मिलने का बहाना भी मिलता है और साथ ही महिलाऐं एक दूसरे को अपना आवा अर्थात दान की
वस्तु और तिल्ली का कांटे वाला हलवा भी हल्दी कुमकुम लगाकर देती हैं|
खेलों से भी जुडाव :
इस त्योहार को तो मैदानी खेलों
से भी जोडा गया है जिसका मुख्य कारण सर्दी के
ठिठुरन भरी ठंडे कोहरे के बहुत दिनो बाद संक्रांति के दिन से ही सूर्य का तेज धीरे धीरे
बढने लगता है और सूर्य की कोमल किरणों
से सीधे सीधे हमें विटामिन डी मिलता है जो घरों के अंदर रहकर नही बाहर आने पर ही मिलेगा
इसी उद्देश्य से कहीं पतंग उडाने की तो कहीं गिल्लीडंडा खेलने की भी परंपरा है|
इसप्रकार पुरे
भारत में ही इस प्राकृतिक और भौगोलिक त्योहार को अलग अलग प्रकार से उस प्रांत की प्रकृति,
सभ्यता और परंपरा के अनुरुप हर्षोल्लास से मनाया जाता है और यह बात तो सर्वमान्य है
कि हम प्रकृति से जुडे हुये हैं और इसी से हमारा जीवन सुचारु रुप से चल सकता है सो
इसकी महत्ता को समझते हुये और जिवन में एकरसता में उमंग भरने के लिये ही हमारे सारे
त्योहर हैं तो क्यों ना हम हर उत्सव को आंनद से मनाऎं|
(नई दुनिया नायिका (11 /01 /2020 ) में प्रकाशित इस लेख का विस्तृत रूप )
भावन नेवासकर
E-mail ID: ba.newaskar@gmail.com